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खुशहाल जीवन के रहस्य Part-5/ कैरियर का जादू /Recipe for Happy Life/Secret of Happy Life

आज के आधुनिक युग में भौतिकवाद के आरामदायक जीवन के नीचे मां-बाप, मां-बेटे, भाई-भाई, भाई-बहन और अन्य सभी रिश्ते सिर्फ औपचारिकता निभाने वाले बन कर रह गए है। भौतिकवाद के पहले इन रिश्तों की बड़ी इज्जत और मान-प्रतिष्ठा रहती थी। हर संबंध के साथ त्याग और प्रेम की लंबी-लंबी कहानियां जुड़ी हुई रहती थीं। लोग कुछ इस प्रकार से जुड़े हुए थे कि ऐसे ही रिश्ते उदाहरण बनकर एक-दूसरे को प्रेरणा देते थे। इसका सुखद उदाहरण था ज्वाइंट फैमिली और ज्वाइंट फैमिली की व्यवस्था, जिसमें परिवार का हर सदस्य एक-दूसरे के सुख-दुख को आपस में बांटता था। पैसे की कमी के होते हुए भी पत्नी संतुष्ट और सुखी रहती थी।

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वह कभी-भी अपनी असंतुष्टि का प्रदर्शन नहीं करती थी। कमर्शियल डेवलपमेंट के साथ हमारे देश में भी पश्चिमी सभ्यता ने एंट्री किया और ज्वाइंट फैमिली के स्थान पर सिंगल परिवार सिस्टम का उदय हुआ। महिलाओ को भी अपने अधिकारों का आभास हुआ और वे स्वतंत्रता और समानता की लड़ाई लड़ने के लिए खुल कर सामने आईं और शिक्षा प्राप्त कर आर्थिक आत्मनिर्भरता प्राप्ति के लिए संघर्ष करने लगीं। इसका परिणाम यह हुआ कि पत्नी की सोच में भी परिवर्तन आने लगा। अब वह पुरुष की अर्धांगिनी बनकर ही नहीं, सहयोगी बनकर रहने की सोचने लगी। और भला ऐसा हो भी न क्यों जब बात हो समानता की या फिर व्यक्ति के अधिकारों का। 

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लड़कियां भी पढ़-लिखकर नए-नए प्रशिक्षण प्राप्त कर पुरुषों के साथ-साथ काम करने लगीं। प्रतियोगी परीक्षाओं में बराबरी करने लगीं। इस प्रकार से दोनों में प्रतिद्वंद्विता की भावना आ गई। पति भी पत्नी को अपना हमसफर और जीवनसाथी मानने के स्थान पर अपना प्रतिद्वंद्वी समझने लगा। उच्चता की यह लड़ाई सुपर 'ईगो' के रूप में सामने आने लगी। परस्पर विश्वास का यह टकराव और तनाव दोनों के मन में एक टीस बनकर जन्म लेने लगा। पति-पत्नी के लिए इस प्रकार के तनाव जहां एक-दूसरे के लिए गलत साबित हो रहे है, वहीं उनके सेक्स संबंधों में भी कमी आई है। इसलिए यह आवश्यक हो गया कि इन संबंधों के लिए इस प्रकार के तनावों को कम किया जाए। 

चूंकि आज के जमाने में दोनों पढ़े-लिखे हो गए हैं, इसलिए दोनों ही इस बात को अच्छी तरह से समझने लगे कि ऐसी कंपटीशन का कोई अर्थ नहीं। दोनों की अपनी-अपनी महत्त्वाकांक्षाएं भले ही हों, लेकिन इनका प्रभाव उनके वैवाहिक जीवन पर नहीं पड़ना चाहिए। क्योंकि प्रतिद्वंद्विता के क्षणों में पति-पत्नी का अधिकांश समय एक-दूसरे की कमियों को ढूंढ़ने, कमियां निकालने और एक-दूसरे को कोसने में ही व्यतीत होगा और उनके हाथों में तनाव के सिवा और कुछ नहीं आएगा।

हर मामले में अपने आपको 'सुपर' यानी श्रेष्ठ, उचित, ठीक, बुद्धिमान और सुंदर समझने की सोच एक-दूसरे को अकेला बनाते जा रही है । दोनों को जीवन में अकेलापन के सिवाय कुछ नहीं मिलेगा। इस संदर्भ में एक प्रशिद्ध मनोरोग विशेषज्ञ का कहना है कि प्रतिद्वंद्विता और प्रतिस्पर्धा के लिए किसी बड़ी समस्या अथवा मुद्दे का होना आवश्यक नहीं। दोनों का संवेदनशील स्वभाव भी एक-दूसरे को प्रतिद्वंद्वी बना देता है। इसी प्रकार परस्पर विरोधी विचार भी कभी-कभी दोनों में तनाव और टकराव की स्थिति पैदा कर देते हैं। बहुत छोटी-सी बात भी क्रोध का बढ़ावा पाकर कभी-कभी सहन शक्ति के बाहर होने लगती है।

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श्रीमती सोमा देसाई, जो स्वयं जवान निर्देशिका हैं, इनके पति को यह शिकायत रहती है कि उनके कम कमाने के कारण, पत्नी उनका ध्यान नहीं रखती। सच तो यह है कि सोमा को यह ख्याल ही नहीं रहता कि उनके पति क्या कमाकर लाते हैं। इस तरह पति देव ने सोमा का ध्यान इस ओर आकर्षित किया और अपनी प्रतिद्वंद्विता का प्रदर्शन भी किया।मतलब  यह है कि कभी-कभी बेकार की बात के लिए भी प्रतिद्वंद्विता की स्थिति तैयार हो जाती है। प्रतिद्वंद्विता की यह स्थिति तब तो और भी अधिक तैयार हो जाती है, जब दोनों एक ही प्रोफेशन में हों। 

ऐसे में एक-दूसरे के अहम यानि ईगो  के टकराने के अधिक 'चांस' बन जाते हैं। पति अध्यापक, पत्नी कालेज में प्राध्यापक, पति कार्यालय सहायक, पत्नी प्रशासनिक पदाधिकारी, पति दुकानदार, पत्नी एडवोकेट, पति किसान, पत्नी ग्राम प्रधान (सरपंच) आदि ऐसी अनेक परिस्थितियां बन जाती हैं, जो पति के मन में अनायास ही हीनता पैदा करने लगती हैं। ऐसी परिस्थितियों में पति के सामने एक ही चारा रह जाता है कि वह घुट-घुटकर न जिए, बल्कि अपनी पत्नी की योग्यता, प्रतिभा और प्रभाव सहयोगी बने। यही प्रगतिशील सोच है। उसे अपने मन में किसी प्रकार की हीनता नहीं लाना चाहिए और न ही पत्नी के प्रति अनिष्ट की कोई सोच लाना चाहिए। 

यदि पति के मन में प्रतिद्वंद्विता की सोच पैदा होगी, तो उसके मन में पति के प्रति उपेक्षा का भाव भी पैदा होने लगेगा। ऐसे पति को पत्नी का मुकाबला करने के लिए उसकी प्रगति में बाधक भी नहीं बनना पड़ेगा। यदि वह पत्नी की प्रगति में बाधक बनने लगे, तो उसे दोहरे तनावों का सामना करना पड़ेगा। परिस्थिति चाहे कोई भी हो, पति-पत्नी अपनी नासमझी के कारण प्रतिद्वंद्विता की स्थिति तैयार करते हैं। एक-दूसरे को अपने से छोटा, हीन, हेय और दूसरे नंबर पर ही रखना चाहते हैं। इस प्रकार की कोशिश और सोच एक-दूसरे को मानसिक दृष्टि से रोगी बनाते हैं। जिससे दोनों चिड़चिड़े स्वभाव के हो जाते हैं। 

डॉ. निर्मला राव कहती हैं कि इस परिस्थिति को समझना चाहिए और परस्पर प्रतिस्पर्धा की स्थिति निर्मित नहीं उत्पन्न होने देनी चाहिए।

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एक प्रसिद्ध मनोचिकित्सक का कथन है कि-

"हाथ की चोट तो ठीक हो जाती है, लेकिन बात की चोट हमेशा हरी बनी रहती है।"

ऐसा क्यों होता है कि अपनी आलोचना सुनते ही हम परेशान हो उठते हैं। इसी परेशानी और तनाव के कारण हम अपना गुस्सा दूसरों पर निकालते हैं। यह प्रतिद्वंद्विता का ही रूप है। प्रतिद्वंद्विता अब मृगतृष्णा जैसी सिद्ध हो रही है, इसलिए समझदार पति-पत्नी अब मध्यम मार्ग पर चल रहे हैं। और यह है, परस्पर विश्वास का मार्ग। अब प्रतिद्वंद्विता के बजाय समानता के धरातल पर सहअस्तित्व की बात जीवन में आने लगी है और प्रतिद्वंद्विता की भावना कम होने लगी है।

समाधान ?

1. कैरियर सुखी जीवन का साधन है, अतः इसे आपसी संबंधों से ऊपर न मानें और न ही एक-दूसरे से ऊँचा होने की भूल करें।  एक-दूसरे से ऊँचा होने की सोच आप को कहीं भी आपस में जुड़ने न देगी।

2. पति-पत्नी के परस्पर संबंध किसी उच्चता अथवा श्रेष्ठता के तलबगार नहीं होते। न ही इनमें किसी प्रकार की उच्चता कोई मायने रखती है। यह आवश्यक नहीं कि पुलिस अधिकारी की पत्नी में भी पुलिस जैसे अन्य लक्षण हों। पत्नी में ऐसे किसी गुण की अपेक्षा न करें, जो उसके लिए सरल न हो। इसीलिए कहा जाता है कि पत्नी से हमेशा सरल सवाल ही पूछे जाने चाहिए।

3. प्रतिद्वंद्विता एक मानसिक रोग है, जो दांपत्य संबंधों पर विष-बेल की भांति छा जाती है।

4. पति-पत्नी के मधुर संबंधों से ही दुनिया के सारे रिश्तों का जन्म होता है, इसलिए इसकी नींव में कहीं भी मोल-भाव अथवा प्रतिद्वंद्विता जैसी कोई बात बीच में न आने दें, बल्कि त्याग और समर्पण भाव से पूरे परिवार के साथ जुड़ें।

5. प्रतिद्वंद्विता ईर्ष्या और घृणा को जन्म देती है। अविश्वास को बढ़ाती है, जो पति-पत्नी के मध्य दरार पैदा करने वाली है, इसलिए इससे कोसों दूर रहें।

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6. धन, वैभव, फैशन और ग्लैमर सभी सुख के साधन हैं, आधार नहीं। जबकि समर्पण, त्याग और आदर्श ये सब सुख के स्थायी आधार हैं। त्याग कर देखें, सुख और संतोष में वृद्धि स्वयं ही होने लगेगी। घर में पूजा हुम करते भले ही हाथ जलते हैं, लेकिन हाथ जलने के भय से कोई हुम करना छोड़ तो नहीं देता है । आखिर पति-पत्नी भी तो अपने बच्चों की खुशी के लिए अपनी खुशियां हुम ही करते हैं, फिर आप इस आदर्श से मुंह क्यों मोड़ना चाहते हैं? जबकि यह पूर्ण सत्य है। खुले मन से कैरियर की मृगतृष्णा से मुक्त हों और पति-पत्नी एक-दूसरे के साथ जुड़ें। दांपत्य जीवन की सफलता का यही मूल है।

दोस्तों ऊपर दिए गए सुझाओं को अपने जीवन  लेने से आपके कई समस्याओ का समाधान अपने आप ही हो जायेगा। जिससे आपका जीवन फिर खुशियों से खिलखिला उठेगा।  एक नया सवेरा लेकर आपके जिंदगी में आएगा। आशा करता हूँ ये लेख आपको  आया होगा।  अगर पसंद आया तो अपनों के साथ जरूर शेयर करें और मुझे सुझाव कमैंट्स लिखकर जरूर बताये।  इसी  कहानियो को पढ़ने के लिए मेरे साइट से जुड़े रहिये। 


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